मैं पडा था कहीं ज़मीन पर। खुश था।
वहां चहल पहल थी, खुशियाँ थी।
लोग आते थे, बैठते थे, बातें करते थे। साथ में गाते थे, हँसते थे, रोते थे।
फिर किसीने कहा, उड़ना शीखो; दुनिया को ऊँचाई से देखो;
दुनिया बड़ी हसीन नज़र आयेगी।
मैंने फिर प्लास्टिक के पंख लगाए। उड़ता चला ऊपर गगन में।
नदी देखी, झरनें देखे, दरिया देखा।
अब भी वहां नीचे चहल पहल थी। लोग हँसते थे, गाते थे, रोते थे;
पर मैं शामिल नहीं था।
थोड़ा और ऊपर ऊडा, सोचा वे लोग नहीं तो खुदा ही मील जाए।
अब बहोत ऊपर हूँ।
अब झरनें, दरिया नहीं दीखते।
अब तो वहां नीचे की चहल पहल भी नहीं दिखती।
अब सोचता हूँ इन पंखों को ऊखाड फ़ेंक दूं। फिर ख़याल आता हैं,
बिना पंख नीचे गीरुंगा।
सोचा हैं, खुदा से पूछ लूं, पर...
वह भी तो कमबख्त नहीं मिला।
वहां चहल पहल थी, खुशियाँ थी।
लोग आते थे, बैठते थे, बातें करते थे। साथ में गाते थे, हँसते थे, रोते थे।
फिर किसीने कहा, उड़ना शीखो; दुनिया को ऊँचाई से देखो;
दुनिया बड़ी हसीन नज़र आयेगी।
मैंने फिर प्लास्टिक के पंख लगाए। उड़ता चला ऊपर गगन में।
नदी देखी, झरनें देखे, दरिया देखा।
अब भी वहां नीचे चहल पहल थी। लोग हँसते थे, गाते थे, रोते थे;
पर मैं शामिल नहीं था।
थोड़ा और ऊपर ऊडा, सोचा वे लोग नहीं तो खुदा ही मील जाए।
अब बहोत ऊपर हूँ।
अब झरनें, दरिया नहीं दीखते।
अब तो वहां नीचे की चहल पहल भी नहीं दिखती।
अब सोचता हूँ इन पंखों को ऊखाड फ़ेंक दूं। फिर ख़याल आता हैं,
बिना पंख नीचे गीरुंगा।
सोचा हैं, खुदा से पूछ लूं, पर...
वह भी तो कमबख्त नहीं मिला।
2 comments:
really awesome as always...deeply meaningful...
Nice one Chintan.
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